सुनो! अगर आज मैं घर न लौटूँ / ज्योत्स्ना मिश्रा
अगर आज समय पर घर न लौटूँ?
बिना मेकअप किये निकल जाऊँ, किसी बाज़ार में
खिडकियों से झांकते ख्वाब
देखती रहूँ घंटों
किसी अनजाने मोड़ से अचानक घूम जाऊँ
और जानते बूझते राह भूल जाऊँ
पीछे से आती आवाजें कर दूँ अनसुनी
किसी परिचित चेहरे को देख
न ठिठकूँ, न मुस्कुराऊँ
बंजारों के किसी टोले के निशान टटोलती
निकल जाऊँ
किसी सूने रेगिस्तान में
बिना पानी बस अपनी प्यास साथ लिए
अपनी अधूरी संवेदनाओं को
मरी हुई गौरय्या की तरह हथेलियों में सहेजे,
भटक जाऊँ किसी बीहड़ में
या किसी राजपथ की तेज भागती
गाड़ियों के शोर के बीच, चीख कर पढूं
युध्ध का आवाहन करती हुई कविता...
रवायती आंसुओं की बाढ़ में डुबो दूँ
सारी मृत भावनायें
या सियाचिन के मौत जितने ऊँचे
और ठंडे हिम शिखरों तक जा कर
अपना नाम लिखा कॉफिन लेकर आऊँ
ऊँचे स्वर में रोते हैं देवदार, रेत के ढूह
गेंहूँ और तेंदूपत्ते के खेत
सदियों की स्थापित सभ्यताओं की
ऊँची अट्टालिकाओं से
लटकती हैं
फाँसी की रस्सियाँ
क्या झूल जाऊँ?
लानत है!
मगर क्यों न?
हाँ क्यों न?
मरने की जगह मारूं
सारी झूठी कवितायें फाड़ कर फेंक दूँ
सारी बोगस, मक्कार मान्यताओं की
बत्तियाँ बनाकर
खोंस दूँ उनके आकाओं के पिछवाड़े
क्षितिज को नोंच कर बिछा दूँ जमीन पर
और फूँक दूँ हवाओं की फुकनियों से
सारे बुझे हुए ज्वाला शिखर
हाँ क्यों नहीं?
मरने से पहले!
आज फिर जीने की तमन्ना है