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सुनो, रफीदा ! सरकारें क्रूर हैं / अनिल पुष्कर

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यह हमला इसलिए नहीं हुआ कि
कोई मजहबी या कट्टरन्थी है
इन हत्यारों के निशाँ तुम्हें मुल्क की संसद में मिलेंगे
शक़्लें बिलकुल अलग हैं और इरादे बिलकुल एक
उनके पास मजहब है
इसलिए नहीं मारा जाएगा कोई जन-प्रतिरोध
उन्हें मारा जाएगा सिर्फ़
इन्साफ़ को बरगलाते रहनुमाओं के मातहत
उन्हें मारा जाएगा
क्यूँकि शहंशाह ताक़तवर है
और साम्राज्य हत्या की इजाज़त देता है ।
 
इन्क़लाब हुआ करे कोई, मगर हत्या कानून है हमारा
और यह दुनिया के किसी देश में मिलेगा
हमारे देश में भी
हमलों के छापेमारी से मिटाए हैं प्रतिरोध
बुझाए हैं इन्क़लाब
जानती हो, किसने दी है शह
कौन दे रहा है
हत्या का मन्त्र और हथियार
हैरान मत हो यह सुनकर --
धर्म, सत्ता और अदालतों में चल रहा है प्रशिक्षण
कि महफूज रहें वज़ीरेआजम
और निजाम महफूज रहे
ईश्वर खैरख़्वाह है इनका
सबूत है गवाह है,
उसकी रहमत बरस रही है इन पर.
वो इबादतगाहों में दीन-हीन की सुनवाई करते हुए
कहता है -- धीरज धरो, हत्यारों को बख़्शा नहीं जाएगा ।
 
वह देवदूतों को आदेश देता है
जाओ, गुनाह की तहक़ीकात करो
तफतीश करो और बताओ मुझे
कि सच क्या है ?
हत्यारों ने ईश्वर से लिया है सुरक्षा-कवच
एक ब्रह्मास्त्र, जिसके चलते ही
हत्या को राजधर्म और साम्राज्य के हक़ में बताते हुए कहेगा
हुज़ूर ! इंसाफ़ के वास्ते ये ज़रूरी है ।

ईश्वर क्या करे ?
सज़ा तय है ।
 
इसलिए न्याय की खातिर अदालतें रोज़ाना
ईश्वर को नरबलि चढाती है
जनसेवकों को हलाल करने के यज्ञ होते हैं
निर्दोषों को आहूत किया जाता है ।
और इस तरह वह सार्वजनिक हत्याएँ पाक-साफ़ होती हैं
इस तरह हरेक नरसंहार और
सत्ताविरोधी हत्या के आदेश पर लगती है मुहर
हुक्म की तामील में हर वक्त सिपहसालार खड़े हैं
जो गुस्ताख हैं, जो निजाम के खिलाफ हैं
उन्हें आदेश के मुताबिक़ सज़ा तय है

सुनो, रफीदा
तुम्हारे जिस्म से यह जो लहू टपक रहा है.
यकीन मानो इतना सबूत काफ़ी है कि
हत्यारे खुलेआम घूम रहे हैं हम सबके बीच
और जिन्हें मारा जा रहा है उनकी हत्या के प्रतिरोध, जुलूस, प्रदर्शन में
जो श्रद्धांजलि में शामिल हैं
और खासकर वह लोग जो चुप हैं. ख़ुद को सुरक्षित समझते हैं ।

औ जो लोग हत्या के बाद ताजिए में शामिल हुए
उनका मरना तय है.
तय करो
कि बेहतर क्या है ।
निजाम की गुलामी में चुप होके मरना
या प्रतिरोध की मशाल जलाते हुए जाना
यक़ीन मानो परमेश्वर कतई
राजधर्म और अदालत की तौहीन नहीं करता ।
शान में गुस्ताख़ी का सवाल ही नही उठता ।
वो जालिम बहुत है
अगर कोई भी उसके फ़ैसले को चुनौती देगा
तो निश्चित ही वह मार दिया जाएगा ।
यही मजहब है ।
यही न्याय है ।
यही निजाम है ।
 
तो न्याय से बगावत क्यूँ है
और है तो अंजाम तय है ?
फिर भी, कहूँगा -- रफीदा!
इक रवायत सदियों से चली आई है --
जानती हो,
जो अपराजित है
उसे कोई मार नहीं सकता ।