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सुनो अर्जुन - 3 / रश्मि प्रभा

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अर्जुन,
आगे की कथा सुन
मन के आगे
मन के विपरीत
प्रेम की कालिंदी को पार करके
मैं - हरि
गोकुल, ब्रजवीथियों और बरसाने को त्याग
मथुरा चला गया।
मन के एक भाग में हाहाकार भरा था
पर उसी मन का दूसरा भाग
पहली बार
जन्मदायिनी के उर से लगने की
अपूर्व अनुभूति से
आषाढ़ की बरखा से सिक्त धरा की तरह
आह्लादित था, हराभरा था
और इनके मध्य
मुझे मेरे ही द्वारा गढ़े गए कर्तव्यों का
निर्वाह करना था...
यह सब
किसी अग्निपरीक्षा से गुजरने जैसा था
किंतु किसी को भी
मेरा विवश रूप नहीं दिखा
क्योंकि मैं देवकी की आठवीं संतान था
विष्णु का अवतार था,
पूतना और कालिया का संहारक था,
गोवर्धन का धारक था
कृष्ण और पीड़ा!
भला कैसे?

कालांतर...
मैं द्वारकाधीश बना
और तथाकथित किंवदंतियों का केंद्र भी
मेरी उंगलियों में
हरित बांस की बांसुरी की जगह
सुदर्शन अा बसा
जिसे चलाना था
जिसे चलाते हुए मैंने देखा
आतताइयों के मस्तक ही छिन्न नहीं हुए
मेरी अनुराग_नदी भी छिन्नमस्तिका हुई
मेरी रासलीला भी खंडित हुई
मेरा मधुबन भी क्षत विक्षत हुआ
पर देखा किसने?
किसने जाना?

यदि इन प्रश्नों के चक्रव्यूह में
मैं स्वयं को छोड़ देता
तो आज तुम्हारे निकट
तुम्हारा सारथी बन
रणछोड़ की संज्ञा नहीं पाता,
बिना अस्त्र शस्त्र को हाथ लगाए
महाभारत की विजय तक
तुम्हें कैसे खींचकर लाता!
इसी में तुम देखते हो ना,
मेरा विराट रूप!

मत्स्यवेध के समय,
मछली की आंख पर,
दृष्टि टिकाने वाले कौंतेय!
एक प्रश्न है तुमसे
मेरे विराट रूप में
तुम्हें माखनचोर दिखा?
जोगीरा गाता गोविंदा दिखा?
या मुरलीधर या सांवरा?
कारागार में पड़ी मां देवकी?
यमुना पार करते पिता वासुदेव?
मेरा पालना झुलाती मेरी यशोदा मइया
उलाहनों पर कान न देते मेरे नंद बाबा
मेरे साथ खेलते मेरे बलदाऊ बीर
मेरे बालसखा, मेरी गोपियां,
और जिसके होने से मैं हूं
मेरी राधा?
यदि देखा है
तो हर द्वंद्व की कारा तोड़कर बाहर आओ
यहां से जो राह निकलती है
वही गंतव्य तक लेकर जाती है
द्वंद्व निर्बल करता है
अपने द्वंद्व के मोहपाश
निर्ममता के साथ
यदि मैंने नहीं काटे होते
तो मैं होता अवश्य
मगर कृष्ण नहीं होता
फिर क्या होता!
न होता द्वारकाधाम, न होता हस्तिनापुर
न गोकुल, वृंदावन की प्रतिष्ठा होती
न मुरली की धुन राज करती
न कभी होती धर्म की स्थापना
और न होता _
घृणा, द्वेष से भरी इस धरती पर
शाश्वत अस्तित्व
राधामाधव के रहस्यमय
गौर सलोने
प्रेम का।