भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुनो ईश्वर / अरविन्द भारती

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुनो ईश्वर
जब तुम्हे
नहलाया जा रहा था
दूध से
ठीक तभी
एक माँ
जिसकी छाती सूख चुकी थी

अपने दुधमुंहे बच्चे
जिसकी एक-एक हड्डी
गिनी जा सकती थी
के लिए गिडगिडाती रही
मांगती रही
लोगों से दूध की भीख
पर ना तुम पिघले
ना तुम्हारे भक्त
दूध बहता रहा नाली में
बच्चा खामोश हो गया
हमेशा के लिए

सुनो ईश्वर!
मंदिर के अंदर
तुम्हे लगता रहा भोग
उधर
मंदिर के बाहर
सीढ़ियों पे
एक बूढ़ा भिखारी
तुम्हारा नाम लेकर
तड़पता रहा भूख से
पर भूख़ बड़ी निकली
तुम छोटे

तुम इतने छोटे क्यों हो ईश्वर?
क्यों नहीं थाम लेते हाथ
मजलूमों का
गरीबों का
भूखों का
बेसहारों का

क्या तुम बूढ़े हो गए हो?
मर गए हो?
या फिर हो गए हो गुलाम
चंद लोगों के?