सुनो ओ शकुन्तलाओ! / रवीन्द्र दास
सुनो ओ शकुन्तलाओ!
मत इतराओ कि तुम दुष्यन्त-प्रिया हो
तुम्हारे उन्मत्त यौवन से बौखलाया कोई
अपनी तृप्ति करने को
बहलाता है तुम्हें
मीठी-मीठी लुभावनी बातों से
जबकि होता नहीं बातों का कोई खतियान
पौरूष उत्कर्ष सहने के एवज में
भले ही मिले कोई
कीमती मुद्रिका
उसे बेचा भी तो नहीं जा सकता खुले बाजार में
हो सकता है
अस्वीकार कर दे तुम्हारे गर्भ को
बरतनी थी सावधानियाँ पहले ही
अब ढोओ उत्सर्जन उसका
बनाकर अपने शरीर का हिस्सा
मानो उसे जीवन का सर्वस्व....
कभी मौके पर
हो जाएगा वह अक्षम जब
उसे महसूस होगी आवश्यकता उत्तराधिकारी की
तुम्हें ढ़ूँढे
प्रामाणिक रक्त-पुत्र की तलाश में
इस दायित्व को निभाने में
बीत तो जाएगा ही एक जीवन
मरते हुए हो सकता है तुम विधवा रहो दुष्यन्त की
लेकिन आज तुम दुष्यन्त-प्रिया नहीं
सुनो ओ शकुन्तलाओ!