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सुनो कतारें डरी हुई हैं / गीता पंडित
Kavita Kosh से
समय बाज है
झपट रहा है
जन के हाथों से रोटी
संसद शोर मचाती लेकिन
खेल रही
अपनी गोटी
सुनो कतारें डरी हुई हैं
देख भूख को
खड़े हुए
नोट गुलाबी सहमें से हैं
अभी बेंक में पड़े हुए
नब्बे पार
उमरिया काँपे
सपनों की हो गयी खोटी
दुल्हन की चूनर
रूठी को
देख पिता का दिल रूठे
नोट पुराने तोड़ रहे दम
घरबर का
सपना टूटे
ड्योढी रोती
जार-जार है
महंदी की अखियाँ छोटी।
संसद शोर
मचाती लेकिन
खेल रही अपनी गोटी।