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सुनो कात्यायनी / कर्मानंद आर्य
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सुनो! उतारता हूँ सब तीर, धनुष, गांडीव
कवच कुंडल
सब तुम्हारे निमित्त था
वन प्रांतर, साम्राज्य की इच्छा
सत्ता के लोलुप दोस्त
सब छोड़ता हूँ अब
ये घोड़ो की टापें नहीं चाहिए
यह पीठ पर लदी जीन भी
सब कुछ तुम्हारे निमित्त रहा
हजारो किलोमीटर का भटकाव
तुम्हारी यादों के साथ
अब नहीं चाहिए कुछ
कह दो राजाओं ने छोड़ दिया सिंघासन की इच्छा
कुछ खास करने का लोभ त्याग दिया
अब वे नीले आसमान के तले
कुछ न पाने की कसम खायेंगे
जो कुछ था वह तुम्हारे निमित्त था
घन गरजता था
बारिस की बूंदें उठती थीं
वन प्रांतर महकता था
सब कुछ तुमसे संदर्भित था
तुम नहीं तो विराग की यह रात किस काम की