भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुनो कान्हा / योगक्षेम / बृजनाथ श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुनो कान्हा !
अधर पर बाँसुरी धर धुन
नई कोई निकालो फिर

पंक होता
जल-तरणिजा
नील फिर परिधान ओढ़े
और गोवर्धन
हँसे फिर
शक्र का फिर दंभ तोड़े

सुनो कान्हा !
सुनाकर भैरवी धुन को
समय-अर्णव खँगालो फिर

सप्तरंध्रों
से पुन: खल
चक्रव्यूही द्वार भेदो
दुशासन की
परुष जंघा
सुदर्शन से अभी छेदो

सुनो कान्हा !
सियासत के नटों से हर
 द्रुपदकन्या बचालो फिर

चक्रवत
चलते समय के
द्वापरी दिन फिर भगाओ
मुक्ति की
उस बाँसुरी से
गीत-गीता सुर सुनाओ

सुनो कान्हा !
सुदर्शन हाथ में ले
देश अब तुम ही सँभालो फिर