भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुनो पथिक तुम, हार न मानो / ज्योत्स्ना शर्मा
Kavita Kosh से
सुनो पथिक तुम, हार न मानो
यूँ ठहर नहीं जाओ।
जीवन पथ पर सबने चाहे
इच्छा-फल चखने
कुछ बोये अपनों ने, होते
कुछ केवल अपने
देकर श्रम की आँच, सरस हों
ऐसे उन्हें पकाओ।
विषधर मिलते, मगर न संचित
गरल करो इतना
जीवन सुन्दर है, तुम इसको
सरल करो जितना
मधुर राग को सहज बजाओ,
मुश्किल नहीं बनाओ।
कण-कण रचा सृजक ने, हितकर,
हर हीरा-तिनका
रूठें न ऋतुएँ थोड़ा-सा
मान करो उनका
लालच की लाठी ले, सजती
बगिया नहीं मिटाओ।
केवल अपना ही दुनिया में
सबने सुख चाहा
ग़ैरों की पीड़ा पर रोकर
जो रखता फाहा
उस पथ के हों पथिक, नयन में
ऐसे स्वप्न सजाओ।
सुनो पथिक तुम, हार न मानो
यूँ ठहर नहीं जाओ।