सुनो बंधु / कुमार रवींद्र

सुनो बंधु
यह गीत नहीं
अचरज की बोली है
 
फागुन मास बिराजे इसमें
सूरज नया हुआ
बंसी ग्वाले की
पुरखिन की 'जुग-जुग जियो' दुआ
 
किसी ज़माने की
भाभी की हँसी-ठिठोली है
 
इसमें छुवन जादुई है
आतुर करती कनखी
राजपाट से बढ़कर जो
वह है मीठी अनखी
 
सातों गगन
नाप आई हंसों की टोली है
 
स्वाँग नहीं
इसमें तो लय है नए ज़माने की
कौंध बीजुरी की
पगचापें हैं बरसाने की
इसी गीत ने
गाँठ-गाँठ जियरा की खोली है

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