सुनो बिटिया / कृष्णा वर्मा
सुनो बिटिया
समझ लो एक बात बिटिया
यह जो जीवन है निरा नाटक है
खो मत जाना इसकी चमक में
और न ही फिसलना किसी मुस्कान पर
मुस्कान के पीछे का छल
लूट लेगा बातों-बातों में
और तुम जड़वत् हुई
मलती रह जाओगी हाथ
बिना परखे, बिना सोचे-समझे
कोई वादा न कर बैठना किसी से
बड़ी अलहदा होती हैं
कमसिन उम्र की राहें
बेसाख़्ता चल पड़ते हैं उन पर पाँव
न चाहकर भी
कोई धकेल देता है उस ओर
बस फिसलने से बचना बिटिया
वरना ख़ुद ही भुगतना होगा ताउम्र
कोई दूजा न होगा तुम्हारी ख़ातिर बेचैन
कोई न छाँटेगा सूर्य -रश्मियाँ बन
तुम्हारा कुहासा
कोसती रह जाओगी ख़ुद को
समेटे नहीं सिमटेगी अपनी छटपटाहट
पकड़ नहीं पाओगी काल को मुठ्ठियों में
और हाँ तुम्हारे विश्वास से परे
कोई आकर नहीं सहलाएगा तुम्हारा दुख
उलीच नहीं पाओगी दूर कहीं
मस्तिष्क की घनघनाहट
देखो यह जीवन है
फूँक-फूँक कर रखना क़दम
हौले-हौले दूर तक तौलना निगाहों से
तब उगाना अपना सूरज
अपने भरोसे की हथेली पर।