सुनो बेटी, उड़ जाता है समय / पूजा कनुप्रिया
मेरी बेटी !
उड़ जाता है समय
पंखों पर सवार होकर
अभी-अभी तो तुमने खोली थीं
अपनी नन्ही आँखें मेरी गोद में
नई-नई मुस्कान के साथ
मुस्कुरा रहा था सारा परिवार
तुम्हारी नन्ही छुअन ने
मिटा दिए थे दर्द सभी
कितनी जल्दी बीत गया एक वर्ष
अब तुम सीखोगी चलना
गिरोगी तो मेरी उँगली पकड़कर संभलना
मैं सिखाऊँगी तुम्हें
सलीके जीवन के
सीमाएँ व्यवहार की
मान-मर्यादा के गुर
निभाना रिश्तों को
दूंगी तुम्हें प्रेम समर्पण आत्मविश्वास
और आत्मसम्मान के गुण
अभ्यास करवाऊँगी ठोकर खाकर
फिर उठने और चल पड़ने का
भर दूँगी साहस की सरिता
जीवन सरल नहीं होगा
मैं सिखाऊँगी तुम्हें जीना
बनाऊँगी तुम्हें
जितनी ममता उतने आत्मविश्वास से पूर्ण
एक सशक्त व्यक्तित्व
जल-सी सरल
तो शिला-सी अटल भी
इसी अभ्यास में बीत जाएँगे
कुछ और वर्ष
और यूँ ही पहुँच जाओगी तुम
मेरी गोद से निकलकर
सपनो के संसार में
देखो तो
कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है
मेरी बेटी
उड़ जाता है समय
पंखों पर सवार होकर ।