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सुनो मागध / कुमार रवींद्र
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					यह अलौकिक स्वप्न-नगरी 
यहाँ, आए - रहो गदगद 
                            सुनो मागध ! 
यह कहाँ से ज़िक्र लाए 
भुखमरी का 
रात तुमने नाच देखा नहीं क्या 
छप्पन-छुरी का 
अरे नाहक कह रहे हो 
इंद्र का कल गिरा गुंबद 
                          सुनो मागध !
आग के तूफ़ान की 
तुम ख़बर लाए 
बावरे हो 
यहाँ सबने शाहजी के विरुद गाए
लाखघर में सो रहे हैं 
चैन से सारे सभासद 
                        सुनो मागध !
मिला बच्चों को नहीं है  
दूध कब से 
महल में भेजे गए हैं 
दूध से कल भरे कलसे 
सभी ख़ुश हैं 
महारानी का हुआ कल रात दोहद 
                         सुनो मागध !
 
	
	

