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सुनो सजनी / कुमार रवींद्र

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सुनोÊ सजनी
यह समय है गीत होने का
        
तुम किचन में हो
न जाने कर रहीं क्या
दाल­रोटी रोज़ की जो
स्वाद उसमें भर रहीं क्या

चूड़ियों की खनक हमसे
कह रही है
वक्त है यह राग बोने का

कहा वासंती सुबह ने
अभी हमसे
छुवन हो लो
नेह­पोथी
जो लिखी थी कनखियों ने
उसे खोलो’

मंत्र उसमें ही
पढ़ा था साथ हमने
क्षीरसागर को बिलोने का

धूप सोनल
सखीÊ उसमें
बसी हैं छवियां तुम्हारी
देह अपनी है बुढ़ाई
किंतु इच्छाएं अभी भी हैं कुंआरी

रस­भिगोई रात होगी
वक्त होगा वह
सभी चिंताएं खोने का