भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुनो सहैया / सुनीता जैन
Kavita Kosh से
सुख का तो, हाँ,
पता नहीं,
दुःख में थे पर
वहीं-वहीं
रोने को दे-दे
काँधा
मैंने पर यह
कभी न सोचा
जिस काँधे पर रोए
वह रोया कितना
काँधा
याद मुझे है यह भी
तुमसे दोनों हाथों ले-ले
झोले अपने डाला,
विस्मय क्या जो
झोला,
खाली का खाली
रहा सदा
सुनो सहैया,
मैं तीरों के पार चली-
अपने नाटेपन से,
अपने खोटेपन से
ऊब-ऊब, अब
डूब चली
आना हो जब
आ जाना
ना आओ तो तुमको
दे जन्मो आशीष, चली
सुनो सहैया,
बहुत किया,
यह जान, तुम्हीं को प्यार,
चली।