भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुनो सागर / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
वक़्त बीता
आँख जब बहती नदी थी
दूसरों के दर्द को
महसूस करने की सदी थी
चाँद भी तब था नहीं हरदम
अधेरे पाख में
सुनो सागर!
नेह करुणा की नदी वह
अभी पिछले दिनों सूखी
चल रही थीं बहुत पहले से
हवाएँ तेज़ रुखी
मर चुकी हैं कोपलें भी आख़िरी
इस शाख में
सुनो सागर!
बूँद भर जल ही बहुत
जो आँख को सागर करेगा
मेंह बन कर वही
सूखी हुई नदियों को भरेगा
प्राण फूटेगा उसी क्षण चिता की
इस राख में
सुनो सागर!