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सुन्दर दृश्य / प्रज्ञा रावत

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सिर पर तगाड़ी रखे
उस स्त्री की चाल में
एक जबरदस्त लय है
जो चिलचिलाते सूरज की धूप के आगोश में
लगातार
आलाप की तरह बज रही है
उसकी माँसल सुन्दर देह के
आरोह-अवरोह को साधे
बोझ उठाते ही खनकते हैं उसके अंग-अंग
उसके कैटवाक के लिए न कोई रैम्प है
न कोई दर्शक-दीर्घा

वह तो ईंटों के ढेर के पास सोए
अपने दुधमुँहे बच्चे की तान से तान मिलाती
पैदा कर रही है अपने पसीने से
धमनियों में भराव
अपने नन्हे की भूख और
और अपने पुरुष के प्रेम की ख़ातिर
मुझे बीज बोती स्त्रियाँ
और हल चलाते पुरुषों-वाले
दृश्य ही सबसे सुन्दर क्यों लगते हैं!
मैं भला इनसे प्रेम करने से
ख़ुद को कैसे रोक सकती हूँ!