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सुन्दर मृदु-मृदु रज का तन / सुमित्रानंदन पंत

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सुन्दर मृदु-मृदु रज का तन,
चिर सुन्दर सुख-दुख का मन,
सुन्दर शैशव-यौवन रे
सुन्दर-सुन्दर जग-जीवन!
सुन्दर वाणी का विभ्रम,
सुन्दर कर्मों का उपक्रम,
चिर सुन्दर जन्म-मरण रे
सुन्दर-सुन्दर जग-जीवन!
सुन्दर प्रशस्त दिशि-अंचल,
सुन्दर चिर-लघु, चिर-नव पल,
सुन्दर पुराण-नूतन रे
सुन्दर-सुन्दर जग-जीवन!
सुन्दर से नित सुन्दरतर,
सुन्दरतर से सुन्दरतम,
सुन्दर जीवन का क्रम रे
सुन्दर-सुन्दर जग-जीवन!

रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२