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सुन पाये तुम / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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सुन पाये तुम टेर न मेरी
कब से तुम्हें पुकार रहा हूँ।

ऐसी भी क्या भूल हुई मुझ
से जो यों मुँह मोड़ रहे हो;
नाता जनम जनम का मेरा
यांे कैसे तुम तोड़ रहे हो?

जब से जीवन-सरिता के तुम
कूल बने, बन धार बहा हूँ॥1॥

जो भूले, लेकिन सँभले
उसको तो मैं इंसान कहूँगा,
और न हों जिससे भूलें ही
उसको मैं भगवान कहूँगा।

मैं मानव हूँ, अपनी भूलों से
कब तक इन्कार रहा हूँ॥2॥

याद नहीं आती ऐसी कुछ
बात कि जो मैंने कहदी हो;
जो तुमको भीतर भीतर अब
तक रह-रह चुभती रहती हो।

मैं बन फूल शूल का भी हँस
कर करता शृंगार रहा हूँ॥3॥

जाने कितने दिन बीते यों
बीत गयी हैं कितनी रातें;
कितने ग्रीष्म, शीत, शरद,
कितने पतझड़, बसंत, बरसातें।

किंतु मना पाया न तुम्हें कर
कर मनुहारें हार रहा हूँ॥4॥

तुम रूठे तो लगता है मुझ
से सारा जग ही रूठा है;
तुम ही हो मेरे जीवन के
स्वप्न-सत्य, औ’ सब झूठा है।

एक बार तो देखो, अपलक
कब से तुम्हें निहार रहा हूँ॥5॥

पूजन को केवल भावों की
रोली, कुंकुम, अक्षत, चंदन;
देह-दीप में साँसों की
बातियाँ संजो लाया स्नेहिल मन।