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सुन लो कि मर्गे-महफ़िल कुछ मौतबर नहीं है / नज़र लखनवी
Kavita Kosh से
सुन लो कि रंगे-महफ़िल कुछ मौतबर नहीं है।
है इक ज़बान गोया, शमये-सहर नहीं है॥
मुद्दत से ढूंढ़ता हूँ मिलता मगर नहीं है।
वो इक सकूने-ख़ातिर जो बेश्तर नहीं है॥