भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुपने में देखी ऐसी बांकी नगरिया हो राम / मंगतराम शास्त्री

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुपने में देखी ऐसी बांकी नगरिया हो राम…
वा हे नगरिया मेरे मन में बसी
 
उस नगरी में ना कोए दीन था, ओड़ै आपस में पूरा यकीन था
ना कोए धोखा सबकी साझी तिजुरिया हो राम…
वा हे तिजुरिया मेरे मन में बसी
 
भूखा नहीं था कोए नाज का, ओड़ै चिडिय़ा नै खतरा ना था बाज का
सबकी थी सबके मन में पूरी कदरिया हो राम…
वा हे कदरिया मेरे मन में बसी
 
कोए किसे की ना था दाब में, ओड़ै फरक नहीं था किसे आब में
सबकी थी आपस के म्हैं सुथरी नजरिया हो राम…
वा हे नजरिया मेरे मन में बसी
 
मंगतराम की आंखें खुली, फेर टोही भतेरी ना वा राही मिली
पहोंची थी उस नगरी में, जोणसी डगरिया हो राम…
वा हे डगरिया मेरे मन में बसी