सुप्रिया रोॅ दोहा-3 / सुप्रिया सिंह 'वीणा'
अपनाॅे मन बोली करम, जें साधै दिन रात।
ओकरै जीवन में मिलै, सुख स्नेह जलजात।।
मन सें नै हारौ कभी, कत्तोॅ दिन विपरीत।
कोशिश करला सें मिलै, सदा हार में जीत।।
कर्म जगत में छै बड़ोॅ, काटै सब जंजीर।
बढ़ियां कामोॅ सें खिचै, वीणा बड़ोॅ लकीर।।
वीणा’ गलती के करोॅ, बारंबार सुधार।
दीप बनी कें विश्व में, फैलावाॅे उजियार।।
दाना चुन पाखी उड़ै, दै छै एक्के सीख।
मान अन्न वीणा रखोॅ, नै तेॅ माँगभेॅ भीख।।
बेटा बेटी एक रं, दूनोॅ अपनें अंग।
सम शिक्षा सम भाव सें, देखोॅ एक्के रंग।।
माय लोर पोछै सदा, बाप आँख रोॅ नूर।
वीणा पिया संग छै, नारी केे सुख मूल।।
सदविचार रँ छै कहाँ, शक्ति दोसरोॅ कोय।
बदलै मन के भावना, दिल में प्रेम संजोय।।
प्रेमें जिनगी में बड़ोॅ, मन के छै श्रृंगार।
प्रेम रंग वीणा सदा, सुखदायी संसार।।
गुण जौं तोरा पास में, धरती भी आकाश।
वीणा आॅंखोॅ में बसै, लाले लाल पलास।।
दुक्खें देहो के करै, अंदर से कमजोर।
सुख संचय से होय छै, विकसित पोरे-पोर।।
मिट्ठाॅे-मिट्ठाॅे बोल नै, अपनाबै छै लोग।
प्रेम-जगत में जौं मिलै, भागी जैतै रोग।।