सुबह-सुबह यहाँ मुरझाई हर कली बाबा / द्विजेन्द्र 'द्विज'
सुबह—सुबह यहाँ मुरझाई हर कली बाबा !
ये दिन में रात—सी कैसी है अब ढली बाबा !
उतार फेंकेगा अपनी वो केंचली बाबा !
वो शख़्स जिसको समझता है तू वली बाबा !
हुए थे पढ़ के जिसे तुम कभी वली बाबा !
किताब आज वो हमने भी बाँच ली बाबा !
ख़्याल तेरे पुराने , नया ज़माना है
उतार फेंक पुरानी तू कंबली बाबा !
सियाह रात को हम दिन नहीं जो कह पाए
मची है तब से ही महफ़िल में खलबली बाबा !
गुज़ार दी है यूँ काँटों पे ज़िन्दगी हमने
न रास आएगी अब राह मखमली बाबा !
उन्होंने फेंक दिया ऐसे अपने ईमाँ को
कि जैसे साँप उतारे है केंचली बाबा !
गया ज़माना जहाँ ‘झूठ’ ‘सच’ से डरता था
बना है झूठ का अब सच तो अर्दली बाबा !
हवा चली है ये कैसी कि सब के सीनों पर
हर इक ने तानी है बन्दूक की नली बाबा !
बयान अम्न के, खेतों में आग के गोले
समझ में आई नहीं बात दोग़ली बाबा !
सबूत गुम हुए सारे गवाह बी गुम—सुम
गुनाह पालने की अब हवा चली बाबा !
ये हर क़दम पे नया इक फ़रेब देती है
निगोड़ी ज़िन्दगी है कोई मनचली बाबा !