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सुबह-सुबह / तारादत्त निर्विरोध
Kavita Kosh से
सुबह-सुबह को
भेंट गई शाम की चुभन,
उस किरन के नाम कोई
पत्र तो लिखो।
खुली जो आँख तो
लगा कि रूप सो गया,
साथ जो रहा था
आज वह भी खो गया।
देह-गंध यों मिली कि
दे गई अगन,
उस अगन के नाम कोई
पत्र तो लिखो।
मन किराएदार था
रच-बस गया कहीं,
तन किसी का सर्प जैसे
डंस गया कहीं।
हम मिले तो साथ में थी
सब कहीं थकन,
उस थकन के नाम कोई
पत्र तो लिखो।
मोड़ पर ही आयु के था
वक्त रुक गया,
दूर चल रहा था पांव
वह भी थक गया।
बांह में था याद की
सिमटा हुआ सपन,
उस सपन के नाम कोई
पत्र तो लिखो।