सुबह-सुबह / नरेश अग्रवाल
एक धरती की चादर है
जिस पर हम टहलते हैं
स्वर्ग के साथ-साथ चलते हैं
क्या यही है हमारा स्वर्ग
खुशियां - खुशियों के साथ चलती हुई
मन की इससे अधिक
और अच्छी चाह क्या हो सकती है।
किसी की चाहत हो तो उस रात मिल जाए
किसी की चाहत हो तो उसे दिन मिल जाए
और इस वक्त, मैं हल्की-हल्की धूप को भी
अपने साथ चलते देखता हूं
देखता हूं अपने तंदुरुस्त पैरों को
जो धीरे-धीरे आगे की ओर बढ़ रहे हैं
संभालना है जिन्हें जिम्मेवारियां आज दिन भर की।
अभी सारे पशु-पक्षियों में ताजगी है
और आकाश में नयी चेतना का संचार
जिससे बादल धीरे-धीरे हट रहे हैं
और ये क्षण इतने कीमती हैं
लेकिन इनका कभी मूल्य नहीं मांगा गया
उदार धरती को हमारे चलने पर हमेशा प्रसन्नता हुई,
और जिनका मूल्य बड़ा और भारी था
वे बड़ी ठोस थीं
हमेशा हमारे अहम् को बढ़ाती हुईं।
लाचारीवश खोलता हूं अब
मैं सुबह के जूते
जिन्हें रख दिया जाना है
अंधकार के एक बक्से में
और कल सुबह की उम्मीद में
भारहीन होकर सो जाते हैं वे।