भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुबह और शाम / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने उसको हँसते देखा;
उसके गालों पर गुलाब को खिलते देखा;
वह अकूल अनुराग-पुलक-सी-
दूर खड़ी भी पास खड़ी थी।
वह मेरी रंगीन सुबह थी!!

बस, फिर मेरी ट्रेन चली थी।
प्लेटफार्म पर सुबह सुनहरी छूट गई थी।
दिन की यात्रा-
धूल-धुएँ के बीच हुई थी।

एक बार फिर,
बरसों बीते,
मैंने उसको नदी किनारे गुमसुम देखा;
उसके गालों के गुलाब सब सूख गए थे;
दूर खड़ी भी पास खड़ी थी।
वह मेरी सुनसान शाम थी॥