भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुबह का दृश्य / विपिनकुमार अग्रवाल
Kavita Kosh से
दूर से
चली आ रही
सदियों से
इतराती
ढोती
हर सुबह
सूरज-सा चमकता
पानी भरा
सिर पर धरा
कलसा
नीले आकाश में बादल
लगता है
माँ की गोद में हो
बच्चा
गोरी हैं गंगा
काली जमुना
फिर कौन हो तुम
गेहूँ-सी
दोनों के बीच
सारा दृश्य
झाँकता
अलसाई सुबह में
विलासिनी के
अंगों-सा।