भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुबह की सैर / नरेश अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं पहली अलार्म के साथ उठ जाता हूं
चारों तरफ अंधेरा है अभी
और सुबह को देखने की ख्वाहिश बहुत अधिक
मीलों पैदल चलता हूं मैं
सूरज की बाट जोहता हुआ
उसके पहले प्रकाश से मैं भी खिल उठता हूं
और इसी तरह सुबह से लेकर रात तक
जल्दी उठने की यह नयी आदत
लगता है कितना अधिक जगा लिया है, हमने अपने आपको
सारी झुकी हुई हड्डियां तन गयी हैं
एक नयी ताजगी के जोर से
दिन भर जमीन पर चलना याद रहता है
हर वक्त जैसे इसकी छाती से जुड़ा हुआ
हां इससे भी अच्छी सैर हो सकती थी
किसी बाग-बगीचे की
फिर भी यह सैर मुझे प्रिय है
क्योंकि यह हमारे घर के बिल्कुल पास है।