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सुबह की सैर / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

मिलते हैं
भिन्न-भिन्न लोग
चक्कर लगाते
औरतें मुटियायी हुईं
लड़कियाँ,
जो पतलाना चाहती हैं
बूढ़े-अधेड़
डॉक्टरी सलाह पर
सिर्फ बच्चों के चेहरे पर
मुस्कान है
बाकी सब परेशान हैं
कोई राम-राम नहीं
इतना भी नहीं
रुककर हाथ मिला लें
बस दूर से
सलाम बजाते हैं
अगले मोड़ से
दूसरी तरफ मुड़ जाते हैं

काम न करने की वजह से
रह गयीं दो रोटी
बाहर निकलकर
नारियल पानी पीते हैं
पपीता खाते हैं
आखिर क्या हुआ?
निकल गया जीवन का सत्
बस भूसा भरे पुतले की तरह
यहाँ-वहाँ जाते हैं
दफ्तर, दुकान में
खुद को सजाते हैं

पहले थी सैर, एक आदत
एक जरूरत, नित्यक्रम
सैर की सैर
सबकी आपस में
कुशल, मंगल, खैर
अब तो सैर
एक डॉक्टरी सलाह है
जिंदा रहने की कला है।