भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुबह कुनकुनी/ रामकिशोर दाहिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बैशाख-जेठ मन
यादें मांँ की
नैनीताल हुईं
सुख-शोहरत
आशीषें उनकी
मेरे भाल हुईं।

एक बाँस
ऊपर सुकवा है
सिर पर सरग-नसेनी
घरी पहर यह
रात शेष है
बहती गंध त्रिवेणी
घुरुर-घुरुर
चकियों की ध्वनियांँ
शीशम-साल हुईं।

मन की सिल पर
श्रद्धा चंदन
उठकर सुबह घिसे
विंध्य धरा के
बेलपत्र पर
सीताराम लिखे
सूख-सूख
आशाएंँ क्वांँरी
पोखर-ताल हुईं।

लीक छोड़कर
उड़न खटोले
उड़ने दूर गए
तहजीबों के
परिचित दर्पण
देते बिम्ब नये
सुबह कुनकुनी
किरणें लेकर
फिर खुशहाल हुईं।

-रामकिशोर दाहिया