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सुबह के अंधेरे / प्रमिला वर्मा

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दर्द की
कोई लहर थी भीतर
मचा रही थी हलचल
बाहर आने को
डर था
कहीं फट न पड़े
और बन ना जाए
बवंडर
यह लहर

उबला था भीतर
बहुत कुछ
बह चला था
अश्रुओं की धार बनकर
धार ने बना दी थी
एक लंबी पगडंडी
पर सूखी थी
गीली न थी
वो
मेरी पगडंडी
बस चरमराहट थी
हर तरफ फैली
सूखे पत्तों की
और सूखे पत्तों पर
उभरता हुआ
एक चेहरा
चेहरा तुम्हारा
नहीं!
नहीं पहचानती
मैं तुम्हें
पहचानूंगी भी नहीं
क्यों आते हो
जिंदगी में
बार-बार मेरी
कभी बन चेहरा
बन कर सांसें कभी
क्या सोचते हो
मेरी सांसे तुम्हारी हैं?
तुम तो
हो चुके थे गुम
मेरी स्मृतियों से
जैसे सुबह होने पर
आसमाँ से तारे

जीती हूँ
मैं अकेली
और मेरे पास है
दम तोड़ती रात
और सुबह के अंधेरे

और उन अंधेरों में
जब टटोलूं खुद को
पाती हूँ वही पत्ते
और उन पत्तों पर
बस एक चेहरा
चेहरा तुम्हारा

हाँ!
मेरी सांसों पर
लिखी है
बस एक इबारत
तुम्हारी ही इबारत
पढ़ती हूँ
जिसे दिन रात
हर पल
सुबहो शाम

तुम ही बताओ
क्या करूं मैं आखिर
सुबह के इन
अंधेरों का!