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सुबह के उजाले की परछाईं / दिनेश जुगरान

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एक पुराने चर्च के पास नीम के दरख़्त के नीचे
खड़े रहकर तुम्हें
रोज़ाना साइकिल से गुज़रते देखा है
न तुम्हारी साइकिल का रंग बदला न ही चेहरे की पीली
उदासी
जो सुबह के उजाले की परछाईं दीखती है

कई बार मैंने कोशिश की तुम्हें रोकने की
खरे बाबू!
और हर बार तुम्हारे लटकती चमड़ीवाले चेहरे
कंधों के ख़ास कोण और
आँखों को सड़कों पर गड़ा देख
हमेशा रोक लिया अपने को और
फिर कुछ ही वर्ष पहले तुम ऐसे थे भी तो नहीं।

रोज़ सबेरे अपनी साइकिल पर हव में लहराती चकरी लगाए
सीटी बजाते निकलते थे मंदिर से लौटते प्रसाद खिलाकर
गले मिला करते थे

तुम्हारी आँखें गीली थीं उस दिन जब मुन्ना हुआ था
और कई बार तुम्हारे हाथ
खिलौनों से भी भरे होते थे
तब सड़कें कच्ची थीं और उनका सीमेंट
कार और स्कूटर से कोई संबंध नहीं था

आज भी जब तुम गुज़रते हो उसी सड़क से
उसी साइकिल पर बहुत मन करता है पूछूँ-
मुन्ना कैसा है उसकी बहू तुम्हें रामायण की चौपाई
सुनाती होगी और छुटकी की शादी-
कार्ड भी नहीं दिया तुमने और तुम्हारे
मंदिर का प्रसाद-क्या मंदिर नहीं गए वर्षों से?

तुम्हें इक्कीसवीं सदी के बारे में मालूम है न खरे बाबू!
बहुत इच्छा है जानने की तुम्हारे पर्दों के रंगों की
जिसमें तुम्हारे सपने टँगे रहते हैं या दीवार पर लगे
लक्ष्मीवाले कैलेण्डर
जिसे तुमने एक शगुन की तरह चिपका रखा था
क्या हुआ तुम्हारे साथ इन कुछ वर्षों में-
केवल सिर हिलाकर जवाब दे देना
मैं सब समझ जाऊँगा

मैं आज भी पेड़ के नीचे हूँ
और तुम अपनी साइकिल पर!