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सुबह गली से मेरी इक पुकार गुजरी है / रंजना वर्मा
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सुबह गली से मेरी इक पुकार गुजरी है
समझ सका न कोई वो कटार गुजरी है
बनी कसक जो मेरे दिल को है मरोड़ रही
वो पीर ठहरी नहीं बार बार गुजरी है
मिली कभी जो खुशी फूल खिल गये मन के
घड़ी वो कम ही मगर यादगार गुजरी है
कहीं कमी न रहे कोशिशें रहीं सब की
कमी सभी को मगर नागवार गुजरी है
बदल गयीं जो चादरें तो छिप गये धब्बे
हरेक रात मगर दाग़दार गुजरी है
बिखर गये सभी पत्ते शज़र हुए सूने
कहेगा कौन यहाँ से बहार गुजरी है
गिने चुने से हैं दिन जो मिले मसर्रत के
भरी जो गम से थीं रातें हज़ार गुज़री है