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सुबह नहीं होती अब / छवि निगम
Kavita Kosh से
नींद के खुलते ही
सुबह सुबह रोजाना ही...
और कैसे फौरन
खिलखिलाता
आंखमिचौली सा खेलता
गोलमटोल
मासूम सा सूरज
मेरी खिड़की की गोदी में लपक आता था।
अब...
तप जाता है
थक जाता है
हाँफते हाँफते बेचारा
चढ़ते चढ़ते
दस मंजिलें एक के बाद एक
सामने उग आई
उस नई इमारत की।
मेरी भी निराश खिड़की
बन्द हो चुकती है
तब तक।