भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुबह न आयी, शाम हो गयी / श्यामनन्दन किशोर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुबह न आयी, शाम हो गयी!
मैंने समझी थी दुपहरिया,
घटना क्या-क्या, राम हो गयी!

एक आग आरती-चिता-
दोनों को कैसे निःस्व जलाती!
ऊर्ध्वमुखी दीये के घर में
ही वैसे छाया मँडराती!
आँसू गिरे तेल में आकर,
पर बाती बदनाम हो गयी!

काम नहीं तो राम रहा है,
कौन यहाँ निष्काम रहा है!
वाणी के भी वरद पुत्र ने
कब सारा दुख-दर्द कहा है!
क्रिया ही नहीं, कहाँ विशेषण-
संज्ञा पूर्णविराम हो गयी!

पूजा का सामान नहीं है,
फिर भी कोरा ध्यान नहीं है,
क्या तलवार याद करने को
काफी खाली म्यान नहीं है?
घर बैठे ही जाने कैसे-
यात्रा चारों धाम हो गयी!

खुद को मोलो, खुद को बेचो-
मेले की परिभाषा जो है।
कहता तमाशबीन अपने को,
खुद ही बना तमाशा जो है।
कौन कहाँ का, कब से ठहरा
दुनिया ही आसाम हो गयी!

कहीं प्रतीक्षा की सीमा है!
घोर तितिक्षा की सीमा है!
कौन चुनेगा, कौन चुनाये-
अन्तर्वीक्षा की सीमा है।
चन्दन-रोली लाये तुम जब
चमड़ी ही नीलाम हो गयी।

धुआँ नहीं तो, आग नहीं है-
यह कहना बेदाग नहीं है,
बरसे मेघ अगर फागुन में-
तो होता क्या फाग नहीं है।
इस मन की गति कौन सँभाले,
शान्ति यहाँ संग्राम हो गयी।

अचल कहाने वाले गिरि की
चोटी सहसा हिल जाती है।
सुना, समानान्तर रेखाएँ
कहीं शून्य में मिल जाती हैं।
मंजिल क्या, पथ में चलते ही
सारी उम्र तमाम होा गयी।

किसे कहेगा, कौन कहेगा
गम आँसू से कहाँ बहेगा?
सभी सुनाने को आतुर हैं,
कौन उन्हें कुछ कहने देगा।
मन की बात दुल्हन घूँघट की;
जिह्वा क्योंकि लगाम हो गयी।

फिर भी कुछ तो कह जाना है
कहते-कहते रह जाना हे।
परिचय तो सब देते ही हैं-
किसको किसने पहचाना है।
देकर जन्म किसी बेटी को
माता ज्यों गुमनाम हो गयी।

(11.8.83)