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सुबह सवेरे / मनविंदर भिम्बर
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सुबह सवेरे
कोहरे में सब कुछ
धुँधला गया
गुलाब का बूटा
जिससे महकता था आँगन
दरख़्त जहाँ पलती थी गर्माहट
मोड़ जहाँ इंतज़ार का डेरा था
कुछ भी तो नहीं दिख रहा
सब धुँधला गया
दिल पर हाथ रखा तो
वह धड़क गया
तेरे ख़याल भर से
सोचा
यह ख़याल है या ज़िक्र भर तेरा
तुम कहते हो
मैं कहीं गया नहीं, यही हूँ तेरे पास