सुबह / नरेन्द्र शर्मा
डूब रहे नभ के तारे, झर रहे जुही के फूल जैसे!
धौले घन हो रहे केसरी पिंगल पल्लव-डाल जैसे;
भरा स्वर्णचम्पा से निर्मल नभ का नीलम थाल जैसे;
आसमान सब सोना-सोना, धरती सोनाधूल जैसे!
पौ फटती, अवनी-अम्बर का होता दूर दुराव जैसे!
बिंध इच्छा-शर से शरमाती प्राची लाल गुलाब जैसे!
लाल किरण ज्वालाशर ऐसी, बादल-जलती तूल जैसे!
जहाँ पीत पुखराज सोहता, बिखरी माणिकमाल जैसे;
अर्धउदित रवि माणिक-कुंडल, मुकुलित अरुण मृणाल जैसे;
अरुणोदय के बादल दिखते हिलता दूर दुकूल जैसे!
तारे छिपते, सूक डूबते, थका अकेला चाँद जैसे;
देख, फेर फीका मुख, जाता दीवारों को फाँद जैसे;
रात और दिन भी हम-तुम-से सरिता के दो कूल जैसे!
एक और दिन आया, प्यारे! यह जीवन दिन मान जैसे!
हुई सुबह--पीलो उड़ आई मेरे पुलकित प्राण जैसे!
खिंचे कँटीले तार सामने, चुभते सौ सौ शूल जैसे!