भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुबह / रविकान्त
Kavita Kosh से
पुरानी पृथ्वी अब नहीं है
नर्म हवा
देह के पोरों में समा रही है
यह जेठ के पहले पानी के बाद की
ठंडी सुबह है
मैं बहुत हल्का-फुल्का-सा हुआ
छत पर खड़ा हूँ
मुँडेर से ताकता
यह चकर-मकर कौआ
मुझसे पहले जाग गया है
बारिश से
धुली गलियाँ
भीगी घास
नहाए हुए हैं मकान, और
लोग भी लग रहे हैं धुले-धुले से
कुछ सोते, कुछ उठे हुए
सफेद गुनगुने बादलों से घिरी
एक चिमनी भी है यहाँ छोटी-सी
गीले मौसम में
दिन को शुरू करती