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सुब्ह-ए-क़यामत जिन होंटों पे दिलासे देखे / राशिद 'आज़र'

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सुब्ह-ए-क़यामत जिन होंटों पे दिलासे देखे
क्या लब-ए-दरिया उन जैसे भी प्यासे देखे

कौन वफ़ा की मंज़िल से इस शान से गुज़रा
चाक-ए-क़बा देखे जो कोई बला से देखे

हाथों में मीज़ान लबों पर हुक्म-ए-कज़ा है
हाकिम-ए-शहर भी अक्सर हम ने ख़ुदा से देखे

देखने वाले यूँ तो बहुत देखे हैं लेकिन
मर जाऊँ जो कोई तेरी अदा से देखे

जिन को ज़ोम था बंद-ए-मिज़ा की मज़बूती पर
उन आँखों से बहते हुए दरिया से देखे

जिन हाथों से बटती ख़ैरातें देखी थीं
इन आँखों से उन हाथों में कासे देखे

इस शहर-ए-ना-पुरसाँ में हम ने तो ‘आज़र’
चेहरे गुलों से देखे दिल सहरा से देखे