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सुब्ह नौ की है तू रौशनी भी सनम / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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सुब्ह नौ की है तू रौशनी भी सनम
चौदवीं रात की चाँदनी भी सनम
रोज़ रातों को, ख़्वाबों में आना तेरा
आशिक़ी भी है, आवारगी भी सनम
पैरहन और ख़ुशरंग हो जाएगा
कासनी हो अगर, ओढ़नी भी सनम
फ़र्क कुछ भी नहीं, है अमल एक ही
नाम पूजा का है, बन्दगी भी सनम
सौ बरस तक जियो, क्या दुआ दें जहाँ
मौत से कम नहीं, ज़िन्दगी भी सनम
जाँ गई तो गई, आबरू भी गई
ले गई नर्क में, ख़ुदकुशी भी सनम
यूँ फसाने तो लिखता रहा है 'रक़ीब'
अब वो करने लगा, शाइरी भी सनम