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सुरंजना / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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सुरंजना, आज भी तुम हमारी पृथ्वी में हो,
पृथ्वी की एक समवयसी लड़की की तरह,
अपनी काली आँखों से देखती हो नीलिमा।

यूनानी और हिन्दू ज्योति के नियमों का रूढ़ आयोजन
सुना हो, फेनिल शब्दों को तिलोत्तमा नगरी की देह पर
क्या-क्या चाहा था? क्या पाया है और क्या खोया है!

उमर बढ़ी है अनेकों कई स्त्री-पुरुषों की,
अभी-अभी डूबा है सूर्य नक्षत्रका आलोक,
फिर भी सागर नीला है, सीप की देह पर अल्पना,
एक पक्षी का गान कितना मीठा होता है।
मानव किसी को चाहता है-उसका वही निहत उज्ज्वल
ईश्वर के बदले अन्य किसी साधन का फल।

याद है, कब किसी तारों भरी रात की हवा में
धर्माशोक के पुत्र महेन्द्र के साथ
जो कोलाहल के संग उतरे थे महासागर के पथ पर
प्राणों में अन्तिम इच्छा लिए।
तो भी मैं किसी को समझा नहीं पाया था

वह इच्छा संघ की नहीं, शक्ति की नहीं, कल्याणकारी सुधियों की करुणा की नहीं थी-
उससे भी कहीं अधिक था, मानव के लिए मानवी का प्रकाश।
जिस तरह सबके सब अँधेरे समुद्रों के क्लान्त नाविक
मक्खियों की गुंजन की तरह एक विह्वल हवा में
भूमध्य सागर में लीन किसी दूरस्थ सभ्यता से-
आज की नयी सभ्यता में लौट आते हैं,
तुम उसी अपरूप सिंधु की रात में मृतकों की रुदन हो
देह से प्यार करती हो, भोर के कल्लोल में।