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सुराही पर / अनीता सैनी
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बहुत दिनों से बहुत ही दिनों से
सुराही पर मैं तुम्हारी यादों के
अक्षर से विरह को सजा रही हूँ
छन्द-बंद से नहीं बाँधे उधित भाव
कविता की कलियाँ पलकों से भिगो
कोहरे के शब्द नभ-सा उकेर रही हूँ।
उपमा मन की मीत मिट्टी-सी महकी
रूपक मौन ध्वनि सप्त रंगों-सा शृंगार
यति-गति सुर-लय चितवन का क़हर
अक्षर-अक्षर में उड़ेला मेघों का उद्गार
शीतल बयार स्मृतियों के पदचाप
मरु ललाट पर छाँव उकेर रही हूँ।
प्रीत पगे महावर संग मेहंदी का लेप
काँटों की पीड़ा कलियों से छिपाती
अनंत अनुराग भरा घट ग्रीवा तक
जगत उलाहना हँस-हँस लिखती
किसलय पथ उपहार जीवन का
वेदना उन्मन चाँद की उकेर रही हूँ।