सुरा त्वमसि / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
तुम हो मेरी सुरा मादिनी!
तुम हो मदिरा प्राणदानिनी!
तुम मेरी अर्चना-वन्दना,
ध्यानसम्पदा, आत्मचिन्तना।
तुम मेरी ध्वन्यर्थव्य´्जना,
गूढ़ प्रयोजनवती लक्षणा।
तुम निर्झरिणी रसतरगिंणी गंगा-कालिन्दी मधुक्षरणी!
तुम हो मदिरा प्राणदानिनी।
होते मेरे अन्तरतर में,
दिवा-निशा में जितने कम्पन।
करता उतनी बार तुम्हारा
स्मरण-मनन-चिन्तन मेरा मन।
मेरी तुम प्रातर्वेला, सिन्दूरा सन्ध्या, मध्ययामिनी।
तुम हो मेरी सुरा मादिनी।
मेरे जीवन का अवलम्बन,
मात्र तुम्हारा स्पन्दन मादन।
मन के आन्दोलन का कारण
प्राणवायु का ज्यों स´्चालन।
मेरे अन्तर्घन को तुम चमकानेवाली स्वर्णदामिनी!
तुम हो मेरी सुरा मादिनी।
अपलक देख रहा मैं तुमको,
कब देखा मैंने अपने को?
जब मैं तुममें डूब चुका तब
शेष बचा क्या कुछ कहने को?
तुम मेरी उन्मादकारिणी हाला, कादम्बरी, वारुणी!
तुम हो मेरी सुरा मादिनी।
(31 दिसम्बर, 1964)