भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुरुज के मती छरियागे / दीप दुर्गवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चढ़के सरग निसेनी सुरुज के मती छरियागे।
हाय रे! रद्दा रेंगइया के पांव घलो ललियागे।

ठाढ़े हावै मंगझनियां संकलाये रे गरुआ, अमरइया तरी।
हर हर डोलत हे पीपर घुंकत हे रे बजहर घेरी बेरी।
ढुड़गा ठाढ़े हे बंबरी पाना मन सबो मुरझागे। हाय रे रद्दा....

भरे तरिया अटागे रे कइसे थिरागे, बोहवत नरवा।
बिन पानी के चटका बरत हे मनखे, मनके तरुवा।
नदिया धार चलो आके मंझधार मा संकलागे। हाय रे रद्दा...

धरगे रांपा कुदारी खनत हावै माटी ल किसान हर।
बोहे झउंहा किसानीन देवत हे ढेलवानी रे, मेढ़ ऊपर
मिहनत बनके पसीना माथा ले बोहावन लागे हायरे रद्दा......

कहे भउजी कइसे जावौ तरिया रेंगत, मै जरै भोंभरा
पानी नइये खवइया बर रीता परे हे जमो गघरा
ढरके कबले रे बेरा हर झट कुन कइसे रतियागे। हायरे रद्दा............

नइ सुनावै अब कोइली के तान हर आमा के डारा मा ना
गुंजत रहिये रे झेंगुरा मंझनिया भर खार अउ ब्यारा माना
लागै कबले आषाढ़ रे भुइयां गज़ब अकुलागे। हाय रे रद्दा ...........