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सुरेश मोची / गौतम-तिरिया / मुचकुन्द शर्मा

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सबेरे से शाम तक
फुटपाथ पर बूटपॉलिश कर रहल हें
सुरेश मोची।
फटल पुराना जूता आर अप्पन जिनगी
के एक साथ सिए हे
सुरेश मोची इहे तरह से रोज जिए हे।
झोरा के सब सामान पसारे हे
सबके पाँव के जूता निहारे हे
जूता के चेहरा से जादे चमकावे हे
पढ़ल-लिखल हे,
खाली समय में फुटपाथे पर सरस सलिल पढ़े हे
मैल कुचैल कपड़ा
पालिस के काम में भी लफड़ा
बूट पॉलिस कहके सबके बुलावे हे,
इहे मजूरी से नोन-तेल घर में पहुँचावे हे,
बैठल-बैठल अकड़ जाहे
जाड़ा, गरमी, बरसात सुरेश रोज आवे हे।
बोली में मिठास,
जे दिन कुच्छो नै आने ऊ दिन निराश,
चार बेटा-तीन बेटी के बाप
गरीबी के शाप,
मगर ऊ लड़ रहल हें।
जिनगी हारे के नाम नय जीते के काम हे,
ई फुटपाथ सुरेश के असली धाम हे।