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सुरों की धारा बहती जाती / गुलाब खंडेलवाल
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सुरों की धारा बहती जाती
जो भी तृषित तीर पर आता पल में प्यास बुझाती
प्रेमाकुल मानस से ढलकर
अगणित ग्राम-पुरों से चलकर
भावुक उर के तीर्थस्थल पर
रुक-रुककर बल खाती
नीर न अब वह क्षीरोपम हो
लहरों का कलरव कम-कम हो
आगे अगम सिन्धु-संगम हो
फिर भी क्या थम पाती!
क्षण-क्षण होता रहे विसर्जन
फिर भी व्यर्थ न इसका जीवन
दोनों तीर हुए हैं पावन
धरा हरित लहराती
सुरों की धारा बहती जाती
जो भी तृषित तीर पर आता पल में प्यास बुझाती