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सुर्ख़ सुर्ख़ होठों पर आग सी दहकती है / शुचि 'भवि'
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- सुर्ख़ सुर्ख़ होठों पर आग सी दहकती है*
टूट कर भी औरत हर हाल में सँभलती है
नींव ही तो करती है तय कि घर बने कैसा
सोच जब हो अच्छी तो ज़िंदगी महकती है
बचपना तुम्हें बेशक ख़ूबतर मिला वरना
ज़िंदगी जवानी में सबकी ही बहकती है
देख कर ज़माने में दोस्तो किसी का ग़म
आँख जाने क्यों मेरी ख़ुद ब ख़ुद छलकती है
देख 'भवि' मिली तुझको रेत की तरह साँसें
तू इसीलिए शायद फ़िक्र से फिसलती है