भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुर्खियाँ आजकल / प्रेमलता त्रिपाठी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मन दुखाती रहीं झलकियाँ आजकल ।
लोग कसते जहाँ फब्तियाँ आजकल ।

कान कोकिल बचन को तरसते यहाँ,
क्रूर नारे बने सुर्खियाँ आजकल ।

एक दूजे मिले आपसी मेल हो,
बात है वह नहीं दरमिंयाँ आजकल ।

कहकहों में डुबाती रही शाम जो,
छा रहीं हैं अजब सुस्तियाँ आजकल।

नेह भरते कहाँ पर्व त्योहार अब,
है न मधुमास सी कांतियाँ आजकल

स्वार्थ मिटता नहीं बात कैसे बने,
यों न मीठी लगें बोलियाँ आजकल ।

लौट फिर शांति के राह पर हम चलें,
प्रेम भेजे वही अर्जियाँ आजकल ।