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सुलगती झीलें / गुलाब सिंह

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(संदर्भ : कश्मीर)

पेड़ों के हाथ में प्रतीक्षा
वृन्तों के साथ में वसंत
जाग रहे जंगल की आँखों में
सपनों के कुछ नए दिगन्त।

टूट गिरे पात
दिन बड़े हुए
सिकुड़ीं ठंडी उदास रातें
सुर्ख प्रश्न
पीत समाधानों से
पाते भी तो आखिर क्या पाते?

क्यों खिलते ऋतु के कुरुक्षेत्र में
ठूँठों-से अंधे श्रीमन्त!

छिड़ी हुई फूलों की चर्चाएँ
खेत-मेड़
वनों और बागों में
मिलजुलकर
यह वसंत गाने को
कौन कहे इन अनन्तनागों से

जड़ें और शाखाएँ काटकर
बोएँगे कौन-सी सुगन्ध!

‘पानी में आग’-
का मुहावरा
सच करती सुलग रहीं झीलें
सेब की टहनियों से
हरी-भरी घाटी तक
मँडराती हैं भूखी चीलें

कटे हुए सिरों की गुफाओं में
तप करते मौसमी महन्त।