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सुलगते रहे शब्द / नंदकिशोर आचार्य

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मैं ने भी तुम्हारी तरह
यही समझ कर
कि अब उन में आँच नहीं रह गयी है
उन्हें घर के पिछवाड़े डाल दिया था।

लेकिन आज
जब यूँ ही खेल-ही-खेल में
मेरा छोटा भाई जो कभी-कभार पीछे से
आँख मूँदता हुआ ‘मेरे’ पर
चढ़ बैठता है
उनमें से एक अदद उठाले लगा
तो हाथ झटकता हुआ
तिलमिला कर पीछे हट गयाः
उस की अंगुलियों के पोरों व
हथेली में बीचोबीच
जलने के निशान बैठ गये थे।

शब्द वैसे ही सुलगते रहे
हमीं जड़ हो गये थे।
मैं ने भी यही समझा था
कि उन में चुक गयी है आग।

(1968)